टूटता समाज बिखरते रिश्ते


"रिश्ते जब बनते हैं तो खुशी देते है वो ही रिश्ते जब टूटते हैं तो दुख देते हैं" |

रिश्ते हम अपने आप ही बनाते हैं और अपने ही हाथो से तोड देते हैं कमी है तो सिर्फ थोडी सी समझदारी की विश्वास की यदि थोडी समझ से और विश्वास से काम लिया जाए तो कुछ हद तक तो रिश्तो को बचाया जा सकता है | आज तो समाज में कोई भी रिश्ता ऐसा नही है जो विश्वास की बुनियाद पर हो ,जहाँ विश्वास और सच्चाई ही नही है तथा जहाँ की रिश्तो की नीव ही कमजोर हो वहा कोई भी रिश्ता कैसे टिक सकता है | हमारा समाज कमजोर हो रहा है आए दिन अख्बारों में खबरे छपती हैं की बाप ने बेटे को मार् दिया भाई ने भाई को मार् दिया एक टुकड जमीन के पीछे| मनुष्य पशु समान व्यवहार कर रहा है कहीं भी कोई सुरक्षित नही है ,वृधावस्था आते ही अपने मा बाप के लिए ही हमारे घर मे जगह नही रहती | मनुष्य अपने ही जन्म दाता का दुश्मन हो गया है |

हमारे समाज में आज जो भी हो रहा है उसके जिम्मेदार तो सभी हैं हम सामाजिक प्राणि हैं तथा समाज से अलग नही हैं हमारा कर्तव्य है की जिस समाज में रहते हैं उसकी बुरईयों को दूर नही कर सकते को कम से कम उनका साथ् तो न दे , क्योंकी समाज को सुधारना किसी एक के बस की बात तो नही है परन्तु आप अपने को तो सुधार ही सकते हैं इस मे हमारा हित भी तो है |

यह शिर्षेक मैने किसी के कहने पर लिखा है तथा इन् प्रश्नो के साथ् समाप्त कर रही हूँ |

हमारे समाज का क्या होगा ? क्या कुछ सुधार आ पायेगा? हम कहाँ तक जिम्मेदार हैं ?

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